"अहम् के
सौन्दर्य का उपादान
- निराशा की गर्त
में जन मानस''
भ्रष्टाचार से पीड़ित
देश की आत्मा
निवेदन कर के
थक गई,परन्तु
राजा नन्द खिलखिलाकर
हँसता रहा, और
देशभक्त चाणक्य स्वरुप जनता
को चरण प्रहार
के साथ - साथ कठोरतम
दंड के विधान
के नागपाश में बांधने
में कोई कसर
नहीं छोड़ी, राजा
नन्द की मानसिक
अवस्था का प्रभाव
उसके कर्मचारिओं पर
ना पड़े ऐसा
तो असंभव है,
जिस राज्य में
भी ऐसी अवस्था
होती है उस
राज्य में दुराचारी
स्वयं ही स्वतंत्र
हो जाते हैं
राजा नन्द के
निर्णय को अघोषित
नियम मान कर
|
ऐसा ही
परिलक्षित होने लगा
है, मात्र शक्ति
को सुरक्षित और
संवर्धित ना रख
पाने वाला राजा
नन्द किस अलंकार
का अधिकारी है
इसे तो समय
ही तय करेगा
| परन्तु एक अटल
सत्य और है
" जब जब मात्र
शक्ति की गरिमा
को ठेस लगी है
तब तब समय
ने युग परिवर्तन
का संकेत दिया
है, जैसे द्रोपदी
के चीर हरण
ने महाभारत को
अंजाम दिया और
सीता हरण ने
रावन के विनाश
की उदघोषणा की
, परन्तुं अहम् के
सौन्दर्य में मदमस्त
सत्ता सदैव इन
संकेतों को कपोलकल्पित
कल्पना ही कहती
है जो की
मदमस्त सत्ता का ऐसा अन्तर्निहित
गुण है जो
की वर्णन ना
किया जा सकने
वाला सत्य है,
हिंदी सभ्यता के
सर्वोच्च रचनाकार गोस्वामी तुलसी
दास जी भी
ऐसे स्थिति को
कलम की असफलता
मान कर लिखते
हैं " यश अपयश
विधि हाथ " |
कलम जब
जब स्थितिओं को
सही दिशा देने
में असमर्थ हुई
हुई है तब
तब कलम ने
होने वाली घटना
को " विधि हाथ
" ही लिखा है,कलम क्या
करे मजबूर हो
कर सब कुछ
विधि हाथ लिख
कर अपने कर्म
को परिभाषित करने
से कलम अपना
दायित्व पूरा कर
जाती है|
दुराचार होने पर
अपनी असहाय स्थिति
का रोना रोना
और दुःख संताप
से पीड़ित आम
इंसान पर सत्ता
की सम्पूर्ण ताकत
का प्रयोग सम्पूर्ण
जनमानस को " निराशा के
गहरे गर्त में
नहीं धकेलेगा " ऐसा
यदि कोई सोचे
तो इसे तुलसी
दास जी के
शब्दों में '''' ताहि
प्रभु दारुण दुःख
देहीं,ताकि मति
पहले हर लेहीं
" लिख कर ही
व्यक्त किया जा
सकता है , कलम
की असफलता यहाँ
भी दिख रही
है,|
प्रश्न है " निराशा
के इस गर्त
से आवाज क्या
उठाने वाली है
" निश्चय ही निराशा
का गर्त कभी
भी आशावादी नारा
नहीं देता, निराशा
के इस गर्त
के व्यापक परिणाम
होते हैं जो
किसी भी देश
को सम्पूर्ण कीमत
दे कर चुकाने
पड़ते है, क्या
ये कीमत दे
कर ही सीखने
का निश्चय राजा
नन्द ने कर
लिया है.????????