Wednesday 27 February 2013

फार्मूले हम पर ना फेंकों


‘’ यूँ जबरियन पत्थर ना फेंकों ‘’

जैसे तुमको रहना है रहते हो

जो करना वो भी करते हो

कोशिश बांटने की भी करते हो

फार्मूले हम पर ना फेंकों

जन मानस अब तुम्हे समझता

गंगा से पावन जन मानस पर

यूँ जबरियन पत्थर ना फेंकों

नये युग का प्रहरी मान कर

सम्मान दिया अभिमान दिया

बदले में क्या – क्या तुम देते हो

एक बार खुद से बस पूछो


Wednesday 13 February 2013

दुर्दांत पर लिखा तो झट बिक जाएगा

लिखना बिकने जब से लगा
अधिकार मानव का दुर्दांत को मिला
मानव था जो गुजर वो तो गया
अधिकार की अब उसको जरुरत कहाँ
अधिकार जिन्दे का ही तो जगह पायेगा
मुर्दों का भी क्या होता कोई आशियाँ
अधिकार मानव का जब कुचल जाएगा
दुर्दान्त ज़िंदा तभी तो रह पायेगा
मानव पर लिखने से क्या मिल पायेगा
दुर्दांत पर लिखा तो झट बिक जाएगा

चारों धाम से गोकुल न्यारा

दागिओं को तो कहीं भी मान्यता नहीं मिलती और ना ही कोई देता है जबरियन डंडे की दम पर हाँ कहलवाना हो तो बात अलग है,
कैसी छवि हमें अपनी बनानी है ये तो निहायती व्यक्तिगत बात है, समाज व्यर्थ ही अपच का शिकार हो जाए तो कोई क्या करे ?
 "" बच्चे को टॉफी दो तो बच्चा समझ ही लेता है की राजी राजी ब्लैकमेल हो जाओ वरना डंडे का स्वाद तो चखना पडेगा "" मजबूरी के घेरे में बंद आम आदमी की नियति तो आम ही हुआ कराती है।
रही बात फंसाए जाने की तो ये तो एक प्रचलित मुहावरा है, प्रयोग करता को सम्पूर्ण अधिकार है चाहे जैसे प्रयोग करे , ये अलग बात है की श्री राम मनोहर लोहिया और लोकनायक को सम्पूर्ण व्यवस्था सम्पूर्ण ताकत लगा कर भी फंसा नहीं पाई .
फंसाए गए लोग जिस तरह फंसे हुए समाज का निर्माण कर रहे हैं एक दिन उन्हें इसी फंसी व्यवस्था में फंस जाना होगा ये अलग बात है।   हम तो यही कह सकते हैं चारों धाम से गोकुल न्यारा --------

'''' अलमस्त ग़ालिब "" के शहर में दूसरा ग़ालिब आज तक नहीं हुआ

क्या विषय वस्तु का आभाव है ? या सृजक डरा हुआ है ?
लेखन की अजीब सी खोखली सी परम्परा चल पड़ी है, कभी महात्मा गांधी पर विवादास्पद टिपण्णी तो कभी नेताजी को फासिस्ट का वाहक , तो कभी प्रेमचंद्र पर कुठाराघात , क्या कुछ स्वयं सोच कर लिख नहीं पाते,  जब आसानी से अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का फ़ायदा उठा कर प्रसिद्ध होने का अवसर मौजूद हो तो मेहनत कौन करे ?
देश , काल,परिस्थिति के आधार पर ही निर्णय लिए जाते हैं जो भूतकाल में लिए गए, उन पर  विवादास्पद टिपण्णी उन फैसलों को बदल तो नहीं सकती तो फिर ओचित्य सिर्फ और सिर्फ प्रसिद्धि पाना ही तो रह जाता है।
आदर्श इंसान बनना है तो क्या स्थापित आदर्श इंसानों पर उंगली उठा कर ही रोल मॉडल बना जा सकता है क्या ?
स्वयं को प्रस्तुत करने से डरने वाला साहित्य या इसका सृजक किस तरह समाज में देश,काल,परिस्थिति के अनुसार सही निर्णयों का मार्ग प्रशस्त करेगा ये तो समय ही तय करेगा या फिर ऐसा करने वालों के प्रति समाज की असहमति ।
शायद यही कारण है की '''' अलमस्त ग़ालिब "" के शहर में दूसरा ग़ालिब आज तक नहीं हुआ ?
https://www.facebook.com/pages/%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%B5-%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0-%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A4%95%E0%A4%BE-%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%8F-%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE-/126453744196967

Friday 1 February 2013

नैतिकता शायद पिछड़ापन



1-विमर्श को बतंगड़  बनते देर नही लगती,ऒर जब  विमर्श को बतंगड़ बनाने से आर्थिक व राजनैतिक बैलेंस   शीट का स्वास्थ्य सुधरता हो तो बतंगड़ बनाने में ही लाभ है ,पूंजीवादी परिपेक्ष में साहित्य की भाषा को थोड़ा परिमार्जित कर लिया तो बतंगड़ बनने से बचा जा सकता है,
2-ऐसा ना हो तो वर्षों पुरानी कहावत '' कॉआ कान ले गया ......''' व्यावहारिक समय में  व्यावहारिक कसौटी पर कसी कैसी जायेगी, रही बात सार्वजनिक विमर्श की तो मीडिया को बाजारवादी सिद्धांत पर आरोहित हो कर सामाजिक विमर्श त्यागने  का प्रयास करना चाहिए, 
3-वैसे तो सामाजिक सरोकारों एवं बाजारवादी सरोकारों में रोटी और सब्जी का रिश्ता है ,  बाजारवादी सिद्धांत पर आरोहित हो कर सामाजिक विमर्श रोटी और सब्जी को एक ही वस्तु साबित करने का प्रयास मात्र रह जाएगा ........अन्यथा चारों धाम से गौकुल न्यारा
वैसे भी पूंजीवाद में लाभ हानि का सिद्धांत सर्वोपरि होता है ... नैतिकता शायद पिछड़ापन  

"अहम् के सौन्दर्य का उपादान - निराशा की गर्त में जन मानस''
भ्रष्टाचार से पीड़ित देश की आत्मा निवेदन कर के थक गई,परन्तु राजा नन्द खिलखिलाकर हँसता रहा, और देशभक्त चाणक्य स्वरुप जनता को चरण प्रहार के साथ - साथ  कठोरतम दंड के विधान के नागपाश  में बांधने में कोई कसर नहीं छोड़ी, राजा नन्द की मानसिक अवस्था का प्रभाव उसके कर्मचारिओं पर ना पड़े ऐसा तो असंभव है, जिस राज्य में भी ऐसी अवस्था होती है उस राज्य में दुराचारी स्वयं ही स्वतंत्र हो जाते हैं राजा नन्द के निर्णय को अघोषित नियम मान कर |
ऐसा ही परिलक्षित होने लगा है, मात्र शक्ति को सुरक्षित और संवर्धित ना रख पाने वाला राजा नन्द किस अलंकार का अधिकारी है इसे तो समय ही तय करेगा | परन्तु एक अटल सत्य और है " जब जब मात्र शक्ति की गरिमा को ठेस लगी  है तब तब समय ने युग परिवर्तन का संकेत दिया है, जैसे द्रोपदी के चीर हरण ने महाभारत को अंजाम दिया और सीता हरण ने रावन के विनाश की उदघोषणा की , परन्तुं अहम् के सौन्दर्य में मदमस्त सत्ता सदैव इन संकेतों को कपोलकल्पित कल्पना ही कहती है जो की मदमस्त सत्ता का ऐसा  अन्तर्निहित गुण है जो की वर्णन ना किया जा सकने वाला सत्य है, हिंदी सभ्यता के सर्वोच्च रचनाकार गोस्वामी तुलसी दास जी भी ऐसे स्थिति को कलम की असफलता मान कर लिखते हैं " यश अपयश विधि हाथ " |
कलम जब जब स्थितिओं को सही दिशा देने में असमर्थ हुई हुई है तब तब कलम ने होने वाली घटना को " विधि हाथ " ही लिखा है,कलम क्या करे मजबूर हो कर सब कुछ विधि हाथ लिख कर अपने कर्म को परिभाषित करने से कलम अपना दायित्व पूरा कर जाती है|
दुराचार होने पर अपनी असहाय स्थिति का रोना रोना और दुःख संताप से पीड़ित आम इंसान पर सत्ता की सम्पूर्ण ताकत का प्रयोग सम्पूर्ण जनमानस को " निराशा के गहरे गर्त में नहीं धकेलेगा " ऐसा यदि कोई सोचे तो इसे तुलसी दास जी के शब्दों में ''''   ताहि प्रभु दारुण दुःख देहीं,ताकि मति पहले हर लेहीं " लिख कर ही व्यक्त किया जा सकता है , कलम की असफलता यहाँ भी दिख रही है,|
प्रश्न है " निराशा के इस गर्त से आवाज क्या उठाने वाली है " निश्चय ही निराशा का गर्त कभी भी आशावादी नारा नहीं देता, निराशा के इस गर्त के व्यापक परिणाम होते हैं जो किसी भी देश को सम्पूर्ण कीमत दे कर चुकाने पड़ते है, क्या ये कीमत दे कर ही सीखने का निश्चय राजा नन्द ने कर लिया है.????????