1-विमर्श को बतंगड़ बनते देर नही लगती,ऒर जब विमर्श को बतंगड़ बनाने से आर्थिक व राजनैतिक बैलेंस शीट का स्वास्थ्य सुधरता हो तो बतंगड़ बनाने में ही लाभ है ,पूंजीवादी परिपेक्ष में साहित्य की भाषा को थोड़ा परिमार्जित कर लिया तो बतंगड़ बनने से बचा जा सकता है,
2-ऐसा ना हो तो वर्षों पुरानी कहावत '' कॉआ कान ले गया ......''' व्यावहारिक समय में व्यावहारिक कसौटी पर कसी कैसी जायेगी, रही बात सार्वजनिक विमर्श की तो मीडिया को बाजारवादी सिद्धांत पर आरोहित हो कर सामाजिक विमर्श त्यागने का प्रयास करना चाहिए,
3-वैसे तो सामाजिक सरोकारों एवं बाजारवादी सरोकारों में रोटी और सब्जी का रिश्ता है , बाजारवादी सिद्धांत पर आरोहित हो कर सामाजिक विमर्श रोटी और सब्जी को एक ही वस्तु साबित करने का प्रयास मात्र रह जाएगा ........अन्यथा चारों धाम से गौकुल न्यारा
वैसे भी पूंजीवाद में लाभ हानि का सिद्धांत सर्वोपरि होता है ... नैतिकता शायद पिछड़ापन
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