।। चमकते भाल पर
वर्तमान के, काली स्याही झलक रही।।
पुत्रमोह की
धृतराष्ट्र है संज्ञा,
बनी रही है बनी
रहेगी |
प्रकृति के
सोपानो पर,
अजब गजब इतिहास
लिखेगी |।
आँखों से अंधा चल
लेता है, मोह में अन्धा विनाश बुलाता |
अभ्युदय के हर काल
खंड में, मोह सबसे बड़ा है धन्धा ।|
एक धृतराष्ट्र
के मोह ने भाई,
युग परिवर्तन की
नीव रखी |
इसी पुत्र मोह
ने,
ज्ञानी दशरथ के
प्राण हरे ।|
मोह के प्यासे
खप्पर को,
लहू संसार का कम
ही पड़ता है
|
जितने कौरव द्वापर में हुए थे, उतने आज धृतराष्ट्र हुए हैं ।|
समय के स्पन्दन
में कम्पन्न है,
समय की धड़कन
बहक गई |
चमकते भाल पर
वर्तमान के,
काली स्याही झलक
रही |।
थमी जो साँसे
आक्रोशित हैं, षड्यंत्रों की वर्षगांठ पर
|
षड्यंत्रों की लीला
से, लीलाधर खुद विस्मित-विस्मित से
|।
एक मूल्य चौसर पर लगा था, महाभारत
उपादान में दे गया
हर मूल्य आज चौसर की चौखट पर, क्या क्या उपहार वो देंगे |।
द्व्वापर के
स्वामी तो कान्हा थे,
वहशत स्वामिनी आज हुई है|
कितने लहू से
प्यास इस चौसर की बुझेगी,
समय सोच कर काँप
रहा |।
द्व्वापर में
कान्हा साथ समय के,
शिव ने मंथन का
जहर पिया |
समय आज पीड़ित
उस भय से,
मन ही मन वो मरा
मरा सा |।
हर युग का एक
सूत्रधार हुआ है, आज कोई कृष्ण-महादेव नहीं |
अनाथ-समय निर्णय
अब कैसे लेगा, धरा के सामने प्रश्न यही है।
No comments:
Post a Comment