Friday 1 February 2013

'' जननी ''


 

लज्जा लज्जित हो तांडव से गुजरी , नर-भाख्षी भी जिस पर शर्मिन्दा हैं,

तिल-तिल मरती उस माँ को क्या समझें , आंसू भी ना जिसके ज़िंदा हैं,

सृजन की वाहक माँ के प्रश्नों का , उत्तर पुरुष कैसे दे पायेगा ,

क्या जगजननी के आगे , शीश उठा वो पायेगा ,

स्वयं प्राणों से खेल के जो, इस संसार को रचती है,

आज वही कोख को अपनी, पल-पल बददुआ देती है,

लज्जा को लज्जित करना , ये कब से पुरुषोचित कार्य हुआ ,

संवर्धन करे जो जग का , मर्द वही कहलाता है,

छद्दम रूप मर्द का रख कर , जननी को लज्जित करना ,

       ये कौन से नियम में आता है

 

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