लज्जा लज्जित हो तांडव से गुजरी , नर-भाख्षी भी जिस पर शर्मिन्दा हैं,
तिल-तिल
मरती उस माँ को क्या समझें , आंसू भी
ना जिसके ज़िंदा हैं,
सृजन की
वाहक माँ के प्रश्नों का , उत्तर पुरुष
कैसे दे पायेगा ,
क्या जगजननी के आगे , शीश उठा
वो पायेगा ,
स्वयं प्राणों से खेल के जो, इस संसार
को रचती है,
आज वही
कोख को अपनी, पल-पल
बददुआ देती है,
लज्जा को
लज्जित करना , ये कब
से पुरुषोचित कार्य हुआ ,
संवर्धन
करे जो जग का , मर्द वही
कहलाता है,
छद्दम रूप
मर्द का रख कर , जननी को
लज्जित करना ,
ये कौन से नियम में आता है
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